रासायनिक खेती से बंजर हो चुकी कृषि योग्य जमीन की उर्वरा शक्ति सिर्फ प्राकृतिक खेती ही वापिस लौटा सकती है : आचार्य देवव्रत  

  • क्रांतिकारी प्राकृतिक खेती से देश की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ किसानों की आर्थिक दशा में भी उल्लेखनीय सुधार संभव  
  • रासायनिक खेती व ऑर्गैनिक खेती से परेशान होकर आचार्य देवव्रत ने जंगलों से प्रेरणा लेकर विकसित की शून्य बजट खेती

चण्डीगढ़ .

पूरे भारतवर्ष की धरती कृषि के लिए बेतहाशा डीएपी, यूरिया और कीटनाशकों के प्रयोग की बदौलत बंजर हो चुकी है। इस पवित्र धरती की उर्वरा शक्ति वापिस लौटाने का सिर्फ और सिर्फ एक ही उपाय है, और वो है प्राकृतिक खेती। ये कहना है गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत का, जो अब संयोगवश देश में प्राकृतिक खेती के सर्वोच्च विशेषज्ञ भी बन गए हैं। आचार्य देवव्रत आज यहां चण्डीगढ़ प्रेस क्लब में आयोजित मीट द प्रेस कार्यक्रम में मीडिया को सम्बोधित करने पधारे थे। आचार्य देवव्रत, जो कुरुक्षेत्र में गुरुकुल भी चलाते हैं, ने अपने प्राकृतिक खेती के विशेषज्ञ बनने के सफर को पत्रकारों के साथ सांझा करते हुए बताया कि उनका भी कुरुक्षेत्र में खेती बाड़ी का काम है और वे भी आम किसानों की तरह डीएपी, यूरिया और कीटनाशकों का प्रयोग करते थे। एक बार उनके स्टॉफ का एक कर्मचारी इस रासायनिक खाद से निकलने वाली विषैली गैस सूंघने मात्र से ही बेहोश हो गया, तो उन्हें लगा कि इन जहरयुक्त चीजों से तैयार खाद्य पदार्थों को खाने से शरीर को कितना नुक्सान होता होगा।

तब वे ऑर्गैनिक खेती की ओर मुड़े तो वहां भी उन्होंने पाया कि बेशक ये जहरीली तो नहीं है, परन्तु एक तो ये तकनीक बेहद खर्चीली है, और ऊपर से उत्पादन भी कुछ खास नहीं हो रहा।

तब उनका ध्यान जंगलों में बिना खाद पानी के स्वयंमेव ही उगने वाली बनस्पति की तरफ गया और उन्होंने प्रयोग आरम्भ किए। तब उन्होंने जीवामृत का अविष्कार किया। उन्होंने बताया कि यह एक ऐसा खाद है, जो बिना किसी खर्च के बनाया जाता है और इसे गाय के मलमूत्र, आवश्यक दालों, गुड़ और केंचुओं के प्रसंस्करण से बनाया जाता है।

उन्होंने न केवल इस प्रक्रिया को विकसित किया बल्कि पिछले आठ वर्षों से अपने कर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में 180 एकड़ खेत पर इसका इस्तेमाल भी किया है। कीटनाशकों से प्रेरित या जैविक खेती के विपरीत, यह पूरी तरह से प्राकृतिक विधि है।उन्होंने बताया कि इसे शून्य-बजट खेती कहना अधिक उपयुक्त है।

उन्होंने दावा किया कि प्राकृतिक खेती इतनी क्रांतिकारी है कि इसे अपनाने से जहां एक तरफ देश की अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा, वहीं किसानों की आर्थिक दशा में भी उल्लेखनीय सुधार देखने को मिलेगा।

उन्होंने जानकारी दी कि गुजरात में राज्यपाल बनने के बाद उन्होंने वहां भी इस प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना शुरू किया ओर अब कच्छ से नवसारी और सौराष्ट्र तक पूरे राज्य में 752,000 एकड़ में हो रही है और गुजरात में अभी तक नौ लाख किसानों ने प्राकृतिक खेती पद्धति को अपनाया है।

राज्यपाल ने कहा कि जिस प्रकार योग से पूरे विश्व में भारत ने एक विशिष्ट पहचान बनाई है, उसी प्रकार प्राकृतिक खेती से भी विश्व स्तर पर भारत की एक विशिष्ट पहचान बनाने की और अग्रसर है। आचार्य देवव्रत ने कहा कि देश के कई क्षेत्रों में जल-स्तर लगातार गिरता जा रहा है। कई क्षेत्र तो डार्क जोन में है। यदि समय रहते किसानों ने रासायनिक खेती छोड़कर प्राकृतिक खेती को नहीं अपनाया तो आने वाले समय में पीने का पानी भी उपलब्ध नहीं होगा।

राज्यपाल देवव्रत ने प्राकृतिक खेती के अपने अनुभवों को याद किया। उन्होंने बताया कि कीटनाशकों के दुरुपयोग के कारण दशकों से मिट्टी की उर्वरता सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। कोई भी मिट्टी जिसमें कार्बनिक कार्बन की मात्रा 0.5 प्रतिशत से कम है, बंजर है। हरित क्रांति से पहले, हमारी मिट्टी में कार्बनिक कार्बन की मात्रा 2-2.5 प्रतिशत थी, परन्तु अब यह 0.2-0.3 प्रतिशत है। इसलिए हमारी मिट्टी निरी बंजर है। हमारी खाद्य फसलें मिट्टी से बहुत कम पोषक तत्व प्राप्त कर रही हैं और पूरी तरह से उर्वरकों पर निर्भर हैं। इसका मतलब है कि किसान तेजी से निजी खिलाड़ियों या सरकारी सब्सिडी की दया पर निर्भर हो रहे हैं। भारत सरकार वर्तमान में यूरिया और डीएपी सब्सिडी पर सालाना 1.25 लाख करोड़ रुपये खर्च करती है और भारत के करीब 83 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत हैं, जो उत्पादन की अतिरिक्त लागत वहन नहीं कर सकते। इसलिए इस शून्य-बजट खेती को बढ़ावा देना समय की मांग है।

एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने बताया कि देश के कृषि विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जाने के लिए उन्होंने प्राकृतिक खेती पर एक पाठ्यक्रम भी तैयार किया है, जिसकी शिक्षा ग्रहण करके भावी पीढ़ी इस शून्य-बजट खेती का और भी आगे प्रचार-प्रसार कर सकेगी।

आचार्य देवव्रत को वर्ष 2015 में मोदी सरकार ने हिमाचल प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया था, व बाद में उन्हें गुजरात में स्थानांतरित किया। आचार्य देवव्रत हमेशा अनूठा सोचते हैं और इसी के चलते उन्होंने राजभवनों में हर वर्ष 26 जनवरी व 15 अगस्त को होने वाले ऐट होम का स्वरूप भी सामान्य चाय पार्टी व मेलजोल से उपयोगी चर्चा-परिचर्चाओं में बदल दिया। आचार्य देवव्रत नशा मुक्ति व स्वच्छता अभियानों के लिए भी जाने जाते हैं व इन क्षेत्रों में भी उन्होंने उल्लेखनीय  छाप छोड़ी है।

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